वैदिक वास्तुकला, जिसे वैदिक वास्तु शास्त्र के आधार पर स्थापित किया गया है, भारतीय वास्तुकला की एक प्राचीन शाखा है। इसका मुख्य उद्देश्य एक भव्य, सुखी और समृद्ध जीवन के लिए संरचित और शुद्धिकृत आवासों का निर्माण करना है। वैदिक वास्तुकला में ग्रंथों में उल्लिखित निर्देशों, सूत्रों, और प्रमाणों का पालन करते हुए निर्माण की प्रक्रिया में आवश्यकता होती है।
वैदिक वास्तु शास्त्र के मुख्य ग्रंथ हैं "वास्तुशास्त्र" और "मनसार". इन ग्रंथों में विभिन्न प्रमाण और निर्देश दिए गए हैं, जिनका पालन करके वास्तुकला में निर्माण की प्रक्रिया को अनुकरण किया जाता है। यह प्रमाण और निर्देश निम्नलिखित कुछ मुख्य विषयों पर आधारित होते हैं:
स्थल चयन: वैदिक वास्तु में स्थल चयन का महत्वपूर्ण रोल होता है। इसमें भूमि के प्रकृति, भूमि का उद्देश्य, जल स्रोतों की उपस्थिति, वातावरणीय परिस्थितियाँ, और नक्शा-निर्माण में ध्यान दिया जाता है।
निर्माण की योजना: वैदिक वास्तु में निर्माण की योजना को बनाने के लिए अलग-अलग प्रमाण और निर्देश दिए गए हैं। यह योजना मन्दिर, मकान, उपनगर, आदि के निर्माण को समर्पित हो सकती है।
स्थापत्य कला: वैदिक वास्तुकला में निर्माण की कला पर भी प्रमाण और निर्देश दिए गए हैं। इसमें वास्तु शिल्प, मूर्तिकला, चित्रकला, और स्थापत्य उपकरणों का उपयोग आता है।
वास्तु दोषों की निवारण: वैदिक वास्तु में दिए गए प्रमाण और निर्देश द्वारा, वास्तुदोषों (वास्तु दोष के उदाहरण के रूप में: वास्तुशाप, वास्तु विपरीतता, आदि) की निवारण की जाती है।
वैदिक वास्तुकला के नियमों और निर्देशों का पालन करके, वास्तुकला के कार्यक्रम में आपूर्ति और आयाम की स्थापना की जाती है, जो एक सुखी और समृद्ध आवास का सृजन करते हैं। यह प्रमाण और निर्देश एक प्राचीन ज्ञान पर आधारित हैं और अद्यतन और संशोधन के साथ समय के साथ विकसित हुए हैं।
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